वंदनीय दादा की मुलाकातों का भावात्मक बोध

शैक्षणिक तथा प्रबोधनात्मक स्वरुप में पुनः प्रस्तुति : किसी तत्वज्ञ विद्वान ने, केवल तत्त्वज्ञान के विषय पर अपने विचार अथवा सिद्धांतों की, विषयवस्तु के अनुरूप प्रस्तुति कर यदि कोई ग्रंथ की रचना की हो, तो उनके विचार या सिद्धांत समझने में आसानी होती है. परन्तु, किसी आत्मसाक्षात्कार प्राप्त व्यक्ति की प्रत्यक्ष अनुभूति पर आधारित विचार और सिद्धांत - ये सामान्यतः काव्य, संवाद, उनकी अन्य रचनाएं तथा उनके निकटवर्ती लोगों के साथ उनके व्यवहार में अभिव्यक्त होते है. उन में से कोई एक आविष्कार को ही उनके तत्त्वज्ञान के रूप में स्थापित किया नहीं जा सकता. इन सभी अभिव्यक्तियों का सार्थक समन्वय कर के उन्हें दुनिया के सामने एक प्रबोधनात्मक स्वरुप में प्रस्तुत करना एक चुनौतीपूर्ण तथा चिंताभरा कार्य हो जाता है. और उसमे अधिक परेशानी इस कारण होती है कि यह चुनौती स्वीकारने वाला सामान्यतः आत्मज्ञानी नहीं होता , बलकि उसे इस कार्य हेतु प्रेरित करने वाली बातों में श्रद्धा ,भक्ति ,गुरुनिष्ठा तथा अन्य लोगों को अपने गुरु के ज्ञानभंडार का लाभ मिले ऐसी उत्कट इच्छा ही रहती है. ऐसे में वह व्यक्ति यदि अभ्यासु और जिज्ञासु न हो तो उसकी अभिव्यक्ति नितांत एकांगी, अपने लिए अनुकूल दृष्टिकोण से तथा आसान तरीके से की जाती है. ऐसा यह जटिल तथा दुरुह कार्य हमने एक चुनौती के रूप में अत्यंत सावधानी से स्वीकार किया है.

दादा जब कार्यरत थे तब कई बार भौतिक शास्त्र के नियमों के विपरीत लगने वाले कई चमत्कार घटित हुए थे. विशेष रूप से संचार अवस्था में वंशविमोचन व ऋणविमोचन कार्यान्वित करते समय घटित हुई घटनाओं में तथा ‘कामकाज’ के दौरान भक्तों को दादा की अतीन्द्रिय शक्ति के कई अनुभवों का लाभ मिला. हालांकि इन सभी बातों में दादा के असली कार्य के उद्देश्य को पूर्णतया अनदेखा किया गया.

ज्ञानसाधना कार्य की नींव : दादा हमेशा यही कहते थे कि अज्ञान ही सारे दुःखों का एक कारण है. अन्य संत महात्माओं ने भी इससे भिन्न कुछ कहा नहीं है. विज्ञान की सहायता से बनाए गए सुख-साधनों का उपभोग करते रहने पर दुःखों को जड़ से दूर किया जाएगा इसी भ्रम में संसार के लोग जीवन व्यतीत करते है. उनको परमार्थ की रह पर ले जाने के लिए शुरुआती दौर में उनके कष्ट-निवारण का कामकाज करना दादा को आवश्यक प्रतीत हुआ. वास्तव में, ज्ञानसाधना ही साधनात्रयी का सबसे महत्वपूर्ण भाग है. क्योंकि इसे आत्मसात किए बगैर ईश्वरीय तत्व की पहचान करनेवाले किसी भी साधन को बुद्धिजीवी जिज्ञासु वर्ग श्रद्धा व निष्ठा से स्वीकार नही करेगा.

दादा ने मुलाकातों के द्वारा किया गया तत्वबोध उनके जीवन कार्य की नींव के समान है. हालांकि उसे सुग्रथित कर पाठ्यपुस्तक के रूप में संसारी जनों के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए उन्हें समय मिला ही नहीं , फुरसत तो कभी नहीं मिली. उनके देहत्याग के पश्चात भी इस तरह का प्रयत्न कही हुआ हो ऐसा नहीं पाया गया. परिणाम स्वरुप, जिज्ञासु जन एक ज्ञानभंडार से वंचित रहे. उसी दिशा में प्रयत्न करने हेतु इच्छुक व्यक्ति के लिए निम्नलिखित दस्तावेज मराठी भाषा में उपलब्ध है.

    पृष्ठ संख्या - लगभग
1. पुण्य विभूतियों ने "दादा " के माध्यम से दिए हुए साक्षात्कार (वर्ष 1961 -1963) 350
2. "दादा" का पत्राचार 115
3. 'दादा द्वारा समय समय पर प्रकाशित पुस्तिकाएं तथा निवेदन (वर्ष 1960 -1983) 250
4. शिरोड़ा (गोवा) में आयोजित 8 साधना सम्मेलनोंमे 'दादा' द्वारा की गई मुलाकातों का कैसेट से किया गया शब्दांकन (वर्ष 1979 से 1983) 1200
5. दादा द्वारा दिए गए प्रवचन व तदनंतर शब्दांकित कर केवल भक्तों में निजी परिचालन हेतु प्रकाशित 2 ग्रंथ गुरुप्रसाद (11-7-1987) तथा आत्मनिवेदन (18-3-1999) 640
  लगभग 2555

पाठक वर्ग : उपरोक्त सभी कृतियां केवल निजी वितरण हेतु प्रकाशित की गई थी. इनके पाठकवर्ग में शामिल लोग किसी न किसी रूप में दादा का परिचय प्राप्त किए हुए थे. परन्तु उपरोक्त ज्ञानभंडार अधिक से अधिक जिज्ञासुओं तक पहुँचना आज के समय की मांग है. हालांकि इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि इनके नए पाठक गुरुमार्गी हों ऐसा जरुरी नहीं , बलकि इसकी संभावना कम ही है. आस्तिक, नास्तिक, जडवादी, अद्वैतवादी, द्वैतवादी, न पूरे आस्तिक और न पूरे नास्तिक अथवा अपनी सुविधानुसार आस्तिक अथवा नास्तिक ऐसे वैविध्यपूर्ण पाठकवर्ग के लिए कोई एक विशिष्ट विचारधारा को प्रस्तुत करना तथा उसे स्वीकार्य न हों ऐसी बातें मान कर चलना इस नए संकलन के लिए खतरे से खाली नहीं. हमारा प्रयास यही है कि विज्ञाननिष्ठ दृष्टिकोण से दुनिया को परखने वाले लोग भी अध्यात्म दर्शन की ओर आकर्षित हों इसी तरह से इस साहित्य को प्रस्तुत किया जाये.

प्रकाशन : श्री शरदचंद्र बाल द्वारा भावार्थ मार्गदर्शिका (प्रथम खंड) नामक मराठी पुस्तक को ॐकार साधना की डीवीडी के प्रकाशन के साथ प्रस्तुत कर इस कार्य के श्री गणेश किए गए हैं. "औदुंबर" नामक प्रतिष्ठित संस्था द्वारा 3 जुलाई ,2012 के दिन यह पुस्तक प्रकाशित किया गया हैं. इस पुस्तक में जन्मों का कारण ऋणानुबंध, कर्मसिद्धांत, दुखों के कारणों की मीमांसा तथा उनका निवारण , ईश्वर की उपासना – कौन सी व कैसी उपयुक्त हैं – इत्यादि अनेक गहन विषयोंका सरल भाषा में आकलन किया गया हैं. इस पुस्तक में वर्ष 1961 से 1963 के दौरान दादा द्वारा दी गई मुलाकातों का भावार्थ समाहित है और इस प्रकार 50 वर्षों की दीर्घ कालावधि के पश्चात पहली बार दादा द्वारा किये गए तत्वबोध का परिचय सामान्य जनों को हो रहा हैं.

पुस्तक से उदधृत कुछेक परिच्छेद तथा वर्तमानपत्रों में प्रकाशित इससे संबधित अभिप्राय वेबसाइट के प्रकाशित सामग्री विभाग में देखे जा सकते है. द्वितीय खंड के संकलन का कार्य चल रहा है और यथा समय वह प्रकाशित किया जायेगा.

अधिक से अधिक पाठक इसका लाभ उठा पाएं यही हमारी श्री सदगुरू के चरणोंमें प्रार्थना है.

 
 
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