वंदनीय दादा भागवत (वर्ष 1921 से 1991)

संक्षिप्त जीवनी व कार्यो की रुपरेखा.

(वर्ष 1921 से 1942)

वंदनीय दादा भागवत का जन्म 6 फ़रवरी, 1921 के दिन सातारा में हुआ. भागवत घराने में पिछली 3 पीढियों से दत्तपरम्परा के अनुसार सेवाकार्य चल रहा था. बचपन में ही उन्हें श्री तेली महाराज नामक सत्पुरुष से मार्गदर्शन प्राप्त हुआ. पिता ने दादा को फ़क़ीरी की दीक्षा प्रदान की थी. यह घटना मानो एक तरह से दादा को भविष्य में सूफी विभूतियों से मिलनेवाले मार्गदर्शन की ओर ले जाने वाला पहला कदम था. एक समय सातारा में जो सुनहरे भागवत के नाम से जाना जाता था उस भागवत घराने में, पिता का व्यवसाय कुछ अकल्पनीय घटनाओंके कारण अवनति की ओर बढ़ने की वजह से उन्हें गरीबी का मुंह देखना पड़ा. दादा को पता चला की इन सब के पीछे कोई विध्वंसक शक्ति कार्यरत थी. साथ ही, उन्हें इस बात का विश्वास हुआ की जगत में एक अगम्य सकारात्मक शक्ति भी कार्यरत रहती है. दादा ने निर्णय लिया की उन्हें उसका पता लगाना ही चाहिये.

(वर्ष 1942 से 1960)

वर्ष 1942 में विश्वयुद्ध के लिये हो रही सैनिकों की भरती में दादा शामिल हुए. सैन्यमें रहते हुए उन्हें बगदाद और करबला जैसे पवित्र स्थानों के दर्शन के अवसर भी प्राप्त हुए. 7 मार्च 1949 के दिन दादा का विवाह हुआ और तत्पश्चात् श्री दत्तगुरु की सेवा जारी रखते हुए उन्हें परमपूज्य साईबाबा की सेवा करने का संकेत मिला. बाबा की आज्ञा से विवाह के ३ वर्ष के उपरांत, दादा ने नौकरी छोड़ दी और श्री क्षेत्र औदुम्बर में ढाई वर्ष माधुकरी (भिक्षाटन) करते हुए उन्होंने सेवा की. वर्ष 1956 में विजयादशमी के दिन दादा ने "श्री साई आध्यात्मिक समिति" की स्थापना की और सर्वप्रथम दादर, मुंबई में हेमकुंज नामक निवास्थान पर तथा तत्पश्चात् 1959 में ह्युजिस रोड स्थित अजिंक्य मेन्शन नामक मकान में दूसरा केंद्र कार्यान्वित किया. वर्ष 1967 तक मुंबई के ये दोनों केंद्र कार्यरत रहे.

सेवाकाल पूर्ण होने पर परमपूज्य हाजीबाबा से नियमित रूप से प्राप्त हो रहे मार्गदर्शन के अनुसार नाथों की सिद्धसिद्धान्त पद्धति कार्यान्वित कर दादा असंख्य दुःखी जीवों की समस्याओंका समाधान किया. 

(वर्ष 1960 से 1967)

वर्ष 1960 से 1964 के दौरान 'जन्म -उत्पत्त्ति- मीमांसा ' विषय पर भक्तों की विचारधारा को दृढ़ता प्रदान करने हेतु ,दादा के माध्यम से अनेकों बार, कई सूफी विभूतियों मुलाकातें हुई.

वर्ष 1962 में , अजमेर शरीफ के परमपूज्य मोईनुद्दीन चिश्ती ने भक्ति साधना (आरती साधना) सिद्ध करने हेतु दादा को श्री पंत महाराज बाळेकुंद्री के पास मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए जाने की आज्ञा दी.

इसी समय के दौरान, जन्मकर्म, जन्मजन्मांतर, मातापिता, अन्य लोग तथा देवता आदि पांच ऋणानुबंधो में बंधे मनुष्य देह को वंशविमोचन, कर्मविमोचन तथा ऋणमोचन इत्यादि अनेक शास्त्रोक्त विधि विधान के द्वारा मुक्त कराने का कार्य दादा करते रहे. उसी प्रकार भक्तों को उपासना दीक्षा, नामःस्मरण दीक्षा, अनुग्रह दीक्षा और गुरु दीक्षा का भी लाभ हुआ. परन्तु, अधिकतर भक्त अपनी सुविधानुसार यही मान कर सारे कार्यो में सहभागी होते थे कि दादा का काम तो उन्हें सांसारिक कष्टों से मुक्ति दिलाना मात्र है. दादा ने भी यह देखा कि लोगों के बीच गए बगैर दैवी कार्य जगत में अप्रगट रहते है. और लोगों की तकलीफ़ें दूर किए बगैर लोग भक्ति की ऒर आगे नहीं बढ़ते. हालांकि लोगों की भक्ति भी केवल अपने कष्टों के निवारण हेतु ही प्रदर्शित होती है. ऐसी जटिल परिस्थितियां निर्माण होने पर दादा को भी अपार धैर्य रखना पड़ा होगा.

(वर्ष 1967 से 1977)

6 अगस्त, 1967 के दिन, गुरु आज्ञा से दादा लंडन गए. वहां के 'स्पिरीचुअल एसोसिएशन ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन' नामक संस्था के संचालको ने पहली 5-6 मुलाकातों में ही दादा को उच्च कोटि की सिद्धता प्राप्त लिए हुए माध्यम के रूप में पहचान लिया. 9 महीने वहां रहने के पश्चात, संस्था की तरफ से प्रस्तावित विपुल मानधन को अस्वीकार कर, बाबा की आज्ञा से दादा भारत लौट आए . इस दौरान दादा की अनुपस्थिति में उनके तथाकथित भक्तों नें उनके यहाँ के कामकाज सारे उलट-पुलट कर डाले थे. अथाह परिश्रम से बांद्रा कर्तव्य सदन नामक केंद्र पर कामचलाऊ तौर पर कार्य करने की व्यवस्था की गई और 1969 में बान्द्रा में लक्ष्मीनारायण नामक भवन में केंद्र के कार्य करने हेतु स्वतंत्र जगह उपलब्ध हुई. वर्ष 1993 तक यह केंद्र कार्यरत रहा.

(वर्ष 1977 से 1989)

साधनात्रयी के पहले दो भाग थे मुलाकातों द्वारा सिद्ध हुई ज्ञानसाधना और श्री पंत महाराज के आशीर्वाद से सिद्ध हुई भक्तिसाधना. परमपूज्य साईबाबा ने दि 30 जून, 1977 को, गुरुपूजन के दिन, दादा को यह आज्ञा दी कि सांसारिक कष्टों के निवारण हेतु किए जानेवाले उनके कामकाज बंद हो, क्योंकि दादा के हाथों एक अलौकिक कार्य सिद्ध होने की राह देख रहा था. वह था ॐकार साधना की सिद्धि. दादा ने वर्ष 1979 से 1983 के दौरान शिरोड़ा, गोवा में प्रत्येक ६ महीने के अंतराल पर ८ निवासी साधना शिबिरों का आयोजन किया. इसी दौरान दादा ने दि २७ अक्टूबर 1982, विजयादशमी के दिन, 'प्रथम श्री साई शक संवत्सर' की स्थापना की घोषणा कर मानवता युग का श्री गणेश किया.

दादा ने जब श्री साई आध्यात्मिक समिति की स्थापना की थी तब उनका हेतु विविध विमोचन विधि, दीक्षा विधि तथा नित्य साधना का कार्यान्वयन था. इन उद्देश्यों की पूर्ति हो जाने पर श्री साई शक संवत्सर '3, अर्थात वर्ष 1985 के अक्षय तृतीया के दिन दादा ने 'श्री साई स्वाध्याय मंडल 'नामक ट्रस्ट की स्थापना की. इस दौरान भक्तों को कारण व महाकारण दीक्षा प्राप्त करने का भी लाभ मिला | ट्रस्ट की विधिवत स्थापना करने के पीछे उद्देश्य यही था कि प्राप्त धन का उपयोग शैक्षणिक, वैद्यकीय तथा अन्य सामाजिक कार्यों हेतु लाभार्थियों को उपलब्ध कराने के लिए हो सके तथा उस पर आवश्यक नियंत्रण रखा जा सके.

विश्व में मानवजीवन को सार्थक करने हेतु जिस आदिशक्ति से सभी देवीदेवता अवतीर्ण हुए उस आदिशक्ति की शक्तिपीठ की स्थापना करने के लिए दादा को दत्त ,नाथ तथा सूफी पंथ की विभूतियों से मार्गदर्शन प्राप्त हुआ और उनके दिशानिर्देशों के अनुसार गुरुवार, चैत्र प्रतिपदा दि 14 अप्रैल 1983 के दिन पर्वरी, गोवा में श्री साईधाम नामक भवन में "श्री शक्तिपीठ" की स्थापना की गई. श्री शक्तिपीठ की साधना में इतनी सिद्धि प्राप्त हो सकती है जिससे साधक दैहिक, आत्मिक तथा गुरुकृपा रूपी शक्तियों के समूह को ब्रह्मरंध्र के स्थान पर धारण कर अपने स्वयं के जीवन का और अन्य लोगों का मनसा - वाचा-कर्मणा कल्याण कर अपना जीवन का सार्थक कर सकता है. अर्थात मानव देह को शक्तिपीठ की तरह कार्यान्वित करने हेतु सिद्धि प्राप्त कर सकता है.

(वर्ष 1989 से 1991)

दादा का कार्य उनकी अपनी इच्छानुसार नहीं चलता था. दादा ने अर्जित की हुई साधनात्रयी की सिद्धता एक ईश्वरीय योजना का आविष्कार था. वर्ष 1952 में दादा श्री साईबाबा का दर्शन करने शिरडी गये थे. उस समय दादा ने अब्दुल बाबा के भी दर्शन लिए. उस मुलाकात के वक्त अब्दुल बाबा ने उन्हें कहा की उन्हें साईबाबा से यह आज्ञा मिली थी कि उनका एक सुपुत्र जब मिलने आए तब उदी (भस्म) से भरा एक मटका बाबा की अमानत के रूप में उसे सुपुर्द किया जाए. यह घटना परम पूज्य साईबाबा वर्ष 1918 में समाधिस्थ होने के २ वर्ष पूर्व घटित हुई थी जब दादा का जन्म भी नहीं हुआ था (दादा का जन्म 1921 में हुआ था) इस प्रकार अब्दुल बाबा ने 35 वर्षो की लगातार प्रतीक्षा के पश्चात् दादा ही साईबाबा के प्रेषित पुत्र है. इसकी सत्यता परख कर, वह उदी (भस्म) से भरा मिट्टी का पात्र दादा के हवाले किया था. ऐसी थी दादा के कार्यों की पश्चादभूमि में स्थित ईश्वरीय योजना. परन्तु दादा के जीवन के ऎसे अनेक चमत्कारों की कथा का उद्घाटन करना था उनके रसीले वर्णन करना यहाँ हमारा उद्देश्य नहीं बल्कि उन्होंने सिद्ध की हुई साधनत्रयी का कार्यान्वयन ही हम साधकों का प्रमुख कर्तव्य है.

निर्वाण - वर्ष 1989 में दादा द्वारा ॐकार साधना की सिद्धता तथा दत्त-नाथ और सूफी पंथो का समन्वय होने पर अंतिम डेढ़-दो वर्ष अनेक आघातों और कठोर तपश्चर्या हेतु किए गए परिश्रम के कारण शारीरिक व्याधियों का जोर बढ़ गया. अंत में ज्येष्ठ कृष्णपक्ष की पंचमी, मंगळवार दि. 2 जुलाई 1991 के दिन दादा ने देह त्याग दिया और श्री साईचरणों में विलीन हो गये.