मानवी जीवन ईश्वरमय हो ।
 

पिछले शतक के दौरान विज्ञान की अचंभित करने वाली अमाप प्रगति के कारण भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए सैंकड़ों साधन उपलब्ध हुए हैं. हालाँकि ये सभी मनुष्य को निरंतर सन्तुष्टि प्रदान करने में पूरी तरह असर्मथ है. उपभोक्तावाद, स्वैराचार, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, असुरक्षितता और अशांति – आज के समाज में यही सब दिखाई देता है.

ईश्वरीय तत्व की सही पहचान कराने वाली और मानवी जीवन को ईश्वरमय बनाने की क्षमता रखने वाली धर्म, भाषा,देश, वर्ण,जाति इत्यादि की सीमाएं लाँघ कर विश्वव्यापी स्वरूप धारण करनेवाली कोई एक उपासना पद्धति को सिद्ध करना - यह उपरोक्त समस्याओं का समाधान हो सकता है . ऐसे सूक्ष्म साधन को मनुष्य के कल्याण हेतु सिद्ध करना यही जगद्गुरू श्री साईनाथ बाबा के अवतार कार्य का प्रधान उद्देश्य था. वंदनीय “दादा” भागवत ने बाबा की आज्ञा व उनके कृपापूर्ण आशीर्वाद से 45 वर्षों की कठोर तपश्चर्या के पश्चात् ज्ञानसाधना – भक्ति साधना (आरती साधना) तथा ॐकार साधना – इस साधनात्रयी को सिद्ध कर इस उद्देश की पूर्ति की थी.

 

साधक को स्वयंसिद्ध होना आवश्यक है.

शुरुवाती दौर में लगभग २७ वर्षों तक अनेक लोग मुख्यतः सांसारिक कष्टो के निवारण हेतु दादा से प्रश्न पूछते थे . असंख्य लोगोंको उससे लाभ हुआ . पर ऐसे कामकाज में व्यस्त रहना उनके जीवन का प्रमुख उद्देश्य नहीं था . इसीलिए उन्हें बाबा ने आज्ञा दी कि "लोगों को सुख देने के बजाय उन्हें सुख का मार्ग दिखाओ " तदनुसार , गुरुआज्ञा की प्राप्ति के पश्चात् दादा ने ३० जून १९७७ (गुरुपूजन)के दिन सांसारिक कष्टों के निवारण हेतु किये जानेवाले कामकाज स्थगित कर दिए एवं तत्पश्चात् अगले १२ वर्षों में साधनात्रयी की सिद्धता विशेष रूप से, ॐकार साधना के साथ पूर्णता प्राप्त की .

 

प्रमाणित प्रशिक्षण प्रणाली


सदगुरु , ईश्वर के प्रतिनिधि -तथा अवतारी महापुरुष -इत्यादि का कार्य उनके जीवित रहने तक पूर्णतया व्यक्तिकेंद्रित होता है. या यूं कहे कि उन्हें ऐसा ही होना पड़ता है. हालांकि उनके देहत्याग के उपरान्त बड़ा शून्यावकाश निर्माण होता है . ऐसे समय में उनका कार्य व्यक्तिकेंद्रित या स्थानकेंद्रित न हो कर एक सुसंबद्ध, शास्त्रोक्त पद्धति से कार्यान्वित हो तभी उस कार्य का मूल उद्देश्य अबाधित रूप से प्रवाहित रह सकता है. इसी उद्देश्य से प्रेरित हो कर हमने दादा के कार्य को “प्रमाणित प्रशिक्षण प्रणाली” के स्वरुप में इस वेबसाइट पर उपलब्ध कराने का प्रयास किया है.

हमारा अभिप्राय है कि दादा का अलौकिक कार्य अत्यंत प्रभावी ढंग से अधिक से अधिक जिज्ञासु, मुमुक्षु और साधकों तक पहुँचाने में यह वेबसाइट बिना किसी मध्यस्थता के हर वक्त उपलब्ध हो सकती है. जिज्ञासु पाठकोंसे हम यह भी निवेदन करना चाहते है कि इस वेबसाइट पर वर्ष १९९१ अर्थात दादा के देहत्याग की समयावधि तक के ही कार्योंका उल्लेख है.


अधिक से अधिक पाठक इस वेबसाइट पर पधार कर इसका उपयोग करें और इसकी स्थापना के पीछे रहे उद्देश्य की पूर्ति हमारे हाथों यशस्वी रूप से हों यही है सदगुरु चरणोंमें हमारी प्रार्थना .

“शुभं भवतु”

श्री साई ज्ञानपीठ ट्रस्ट, मुंबई